अर्थव्यवस्था पर वैश्विक राजनीति: एक सामान्य नागरिक की दृष्टि से

भाग 1: भारत–अमेरिका–रूस त्रिकोण का विश्लेषण

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Image Credit: Peter Navarro

जैसा कि आप जानते हैं की राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्त्व में अमेरिका ने भारत पर 25% ‘पारस्परिक’ शुल्क (‘रेसिप्रोकल’ टैरिफ) और राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर 25% अतिरिक्त शुल्क लगाया है। यह कदम भारत की रूस से तेल खरीद जारी रखने के कारण उठाया गया, जिसे अमेरिका रूस की युद्ध मशीनरी का अप्रत्यक्ष वित्तपोषण मानता है। ट्रंप प्रशासन इसे रूस पर दबाव बनाने के लिए एवं भारत को खरीद से रोकने के लिए आवश्यक कदम मानता है।

विदेशी शक्तियों द्वारा देश की अर्थव्यवस्था का शोषण हमारे लिए नया नहीं है। इसलिए जांच-परख हेतु क्यों न अमेरिकी सरकार से कुछ बुनियादी प्रश्न पूछे जायें?

  1. वर्तमान में यह व्यापक रूप से रिपोर्ट किया गया है कि भारत द्वारा अमेरिकी वस्तुओं पर लगाए जाने वाले शुल्कों का भारित औसत 5% और सामान्य औसत 17% है। ऐसी स्थिति में, अमेरिका द्वारा 25% शुल्क कैसे “पारस्परिक” माना जा सकता है? इस गणना के लिए कौन सा सांख्यिकीय सूत्र या विधि अपनाई गई?
  2. अमेरिकी ट्रेजरी सचिव स्कॉट बेसेंट के अनुसार, युद्ध से पहले चीन अपनी तेल आवश्यकताओं का 13% रूस से आयात करता था, जो अब सोलह प्रतिशत हो गया है। इसे ‘विविधीकरण’ माना गया है। वहीं भारत की यह संख्या एक प्रतिशत से बढ़कर चालीस प्रतिशत से अधिक हो गई है। पर चीन ने अपनी विविधता कैसे बढ़ाई? उसके विकल्प ईरान और वेनेजुएला का सस्ता कच्चा तेल है, दोनों ही देशों पर अमेरिका के लंबे समय से प्रतिबंध हैं। क्या अमेरिका ने चुपचाप प्रतिबंधित तेल व्यापार के लिए रास्ता खोल दिया है?
  3. यदि चीन के ईरान और वेनेजुएला से ऊर्जा आयात को स्वीकार्य माना जाता है, तो जुलाई में छह भारतीय निजी कंपनियों पर ईरान से तेल व्यापार के लिए क्यों प्रतिबंध लगाए गए?
  4. सचिव बेसेंट ने भारत के कुछ धनी परिवारों पर रूसी तेल से भारी मुनाफा कमाने का आरोप लगाया है, जो संभवतः रिलायंस इंडस्ट्रीज की ओर संकेत करता है। यदि सत्य में केवल कुछ निजी कंपनियां लाभ कमाती हैं, तो उन पर ईरान से व्यापार कर रहे कंपनियों की तरह सीधे प्रतिबंध क्यों नहीं लगाए गए?
  5. अमेरिकी विदेश सचिव मार्को रूबियो ने हाल ही में बयान दिया कि चीन, जो की रूसी तेल का सबसे बड़ा आयातक है, उसे अपने रूस व्यापार के लिए दंडित करना गलत होगा क्योंकि परिष्कृत तेल वैश्विक बाजार में जाता है और इससे अन्य खरीदार प्रभावित होते हैं। यदि यह तर्क चीन के लिए सही है, तो भारत के लिए क्यों लागू नहीं होता?
  6. अर्थव्यवस्थाव्यापार सलाहकार पीटर नवारो का आरोप है कि भारत यूक्रेन युद्ध में अपनी भूमिका स्वीकार नहीं कर रहा और मुनाफा कमा रहा है। भारत मुख्य रूप से कच्चे तेल और कोयले का आयात करता है, जो G7 की मूल्य सीमा के अधीन है, जबकि अमेरिका और यूरोप अन्य वस्तुएं जैसे यूरेनियम, उर्वरक, और LNG बिना किसी मूल्य सीमा के खरीदते हैं। जब अमेरिका के अपने सहयोगी अधिक मुनाफे वाली वस्तुएं खरीदते हैं तो फिर अमेरिका भारत पर युद्ध का वित्तपोषण करने का आरोप कैसे लगा सकता है? साथ ही, अमेरिकी ट्रेजरी सचिव ने माना कि यूरोप भेजे गए अमेरिकी हथियार यूक्रेन में दस प्रतिशत अधिक कीमत पर बेचे जा रहे हैं। क्या अमेरिका को हथियारों पर लाभ कमाने की कोई परवाह नहीं है?
  7. नवारो का यह भी कहना है कि भारत के रूस से तेल व्यापार का खर्च अमेरिका वहन करता है क्योंकि अमेरिकी करदाता यूक्रेन को सैन्य सहायता देते हैं जबकि भारतीय रिफाइनर मुनाफा कमाते हैं। पर विडंबना यह है कि अमेरिका ने स्वयं ही अपनी सहायता अब रणनीतिक निवेश में बदल दिया है। हाल ही में अमेरिका और यूक्रेन ने खनिज संसाधन समझौता किया है, जिसमें यूक्रेन के महत्वपूर्ण खनिजों के विकास, प्रसंस्करण और मुद्रीकरण के लिए एक संयुक्त कोष बनाया गया है। समझौते के बाद भेजी गई सहायता इस कोष में अमेरिकी योगदान मानी जाएगी। साथ ही भविष्य के खनिज निर्यात में अमेरिका को प्राथमिकता देने का प्रावधान भी है। जहां एक तरफ अमेरिका भारत पर लाभ कमाने का आरोप लगाता है, वहीं दूसरी तरफ उसने खुद यूक्रेन के प्राकृतिक संसाधनों से दीर्घकालिक लाभ उठाने की पूरी तैयारी कर रखी है। स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि क्या अमेरिका का व्यवहार वाकई यूक्रेन के विश्वसनीय मित्र जैसा है, या बस एक कुटिल राजनैतिक निवेशक जैसा, जिसके लिए यूक्रेन की जीत का मतलब रूसी सीमा के पास NATO की मौजूदगी पाना और हार का मतलब यूक्रेन की खनिज संपदा पर अधिकार जमा लेना है?

व्यापार समझौते या आर्थिक दबाव?

अब तक के प्रश्नों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अमेरिका की रणनीति केवल न्याय या साझेदारी पर आधारित नहीं है, बल्कि इसका केंद्रीय उद्देश्य आर्थिक लाभ को अधिकतम करना है, चाहे इसके लिए किसी भी सहयोगी पर कितना भी दबाव क्यों न बनाना पड़े।
अमेरिका ने ब्रिटेन, यूरोपीय संघ, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे कई देशों के साथ व्यापार समझौते किए हैं। लेकिन इन समझौतों में ‘पारस्परिकता’ नाममात्र की भी नहीं है। इन समझौतों में आमतौर पर तीन विशेषताएँ होती हैं:

  1. अमेरिका इन देशों से आयातित वस्तुओं पर 10% से 20% तक टैरिफ लगाएगा, जिससे उन्हें उन देशों पर प्रतिस्पर्धात्मक लाभ मिलेगा जिन्होंने ऐसा कोई समझौता नहीं किया।
  2. ये साझेदार अपने देश में कृषि, डेयरी, औद्योगिक और अन्य क्षेत्रों में अधिकांश शुल्क और गैर-शुल्क बाधाएँ हटा देंगे।
  3. वे अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सैकड़ों अरब डॉलर का निवेश भी करेंगे।

सबसे “अनुकूल” कहा जाने वाला समझौता अमेरिका–ब्रिटेन के बीच हुआ है। इसमें अमेरिका ने अधिकांश ब्रिटिश वस्तुओं पर 10% शुल्क लागू रखा है, जबकि ब्रिटेन ने अमेरिकी वस्तुओं पर अपने औसत शुल्क को 5.1% से घटाकर केवल 1.8% कर दिया। क्या यही पारस्परिक व्यापार का आदर्श है? यदि हाँ, तो असंतुलन स्वयं स्पष्ट है।

इसी प्रकार, यूरोपीय संघ ने अमेरिका से 750 अरब डॉलर मूल्य की ऊर्जा खरीदने का समझौता किया है, जबकि जापान ने अमेरिकी बाज़ार में प्रवेश पाने के लिए 550 अरब डॉलर का निवेश करने का वचन दिया है, और बदले में उसे 15% शुल्क की ‘रियायती’ दर मिली। जापान ने अपने कृषि और ट्रक बाज़ार भी अमेरिकी कंपनियों के लिए खोल दिए।

भारत की स्थिति

भारत और अमेरिका के बीच व्यापार वार्ता पाँच दौर चली, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने कृषि, डेयरी और मत्स्य क्षेत्रों को अमेरिकी बाज़ार के लिए खोलने से इनकार कर दिया। उन्होंने किसानों और गरीब तबकों की खाद्य सुरक्षा को प्राथमिकता दी, भले ही इसके लिए राजनीतिक जोखिम क्यों न उठाना पड़े।

इसके प्रत्युत्तर में ट्रंप प्रशासन ने पहले 25% का तथाकथित ‘पारस्परिक’ शुल्क लगाया और फिर रूस से तेल खरीद जारी रहने पर अतिरिक्त 25% शुल्क जोड़ दिया। यह दूसरा शुल्क स्पष्ट रूप से दबाव बनाने की राजनीति है। ट्रंप जानते हैं कि 25% शुल्क भारत को झुकने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। क्योंकि किसी भी संभावित समझौते में भारत को अधिकतम रियायत यूरोपीय देशों के बराबर ही मिल सकती थी जो कि 15% है। कृपया ध्यान दें कि टैरिफ दर बिक्री मूल्य पर लगता है, इसलिए यदि बिक्री मूल्य अधिक हो तो 15% टैरिफ भी कम बिक्री मूल्य के 25% जैसा ही होगा। भारत, अपनी कम उत्पादन लागत और बिक्री मूल्य के कारण, 25 प्रतिशत शुल्क के बावजूद भी यूरोपीय देशों के मुकाबले आसानी से प्रतिस्पर्धा में बना रहता।

थाईलैंड, कंबोडिया और पाकिस्तान जैसे देश, जहां लागत मूल्य भारत जैसा ही है, अमेरिका से व्यापार समझौते कर चुके हैं जिन्हें लगभग 19% टैरिफ दर प्राप्त हुआ है। भारत यदि कर प्रणाली और नीतिगत प्रोत्साहनों में सुधार करे, तो वह अमेरिका से बिना कोई समझौता किये भी इस अंतर को सहजता से भर सकता है।

ऐसी स्थिति में तो श्रेयस्कर यही होगा की भले ही हम 25% शुल्क स्वीकार कर लें, परन्तु किसी भी समझौते पर हस्ताक्षर न करें। इससे अमेरिकी बाज़ार तक पहुँच बने रहने के साथ किसानों की सुरक्षा भी बनी रहेगी और निवेश की बाध्यताओं से भी बचाव रहेगा। ट्रंप एक चालाक व्यापारी हैं और ये समझते हैं की बिना दबाव बढ़ाये भारत को समझौते के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। उन्हें यह भी दिखता है कि भारत ऊर्जा और रक्षा के लिए एक बड़ा बाज़ार है, और रूस इन दोनों का प्रमुख आपूर्तिकर्ता रहा है। अतिरिक्त शुल्क लगाकर अमेरिका न केवल भारत को रूस से अलग करने और अपने हथियार व तेल की ओर मोड़ने का प्रयास कर रहा है, बल्कि व्यापार समझौते के लिए भी बाध्य कर रहा है।

Image Credit: Peter Navarro

कई विशेषज्ञ मानते हैं कि अमेरिका के कुछ प्रमुख रक्षा प्लेटफ़ॉर्म, जैसे F-35, तकनीकी रूप से रूस के समकक्ष विमानों, जैसे Su-57 से बेहतर हैं, लेकिन उनकी कीमत दुगनी या उससे अधिक होती है। साथ ही, अमेरिका तकनीकी हस्तांतरण, संयुक्त उत्पादन और सोर्स कोड साझा करने को लेकर जल्द तैयार नहीं होता। यदि भारत सारे हथियार अमेरिका से लेने लगे तो इसका परिणाम यह होता है कि भारत को युद्धकाल में अमेरिकी गोला-बारूद और उपकरणों पर निर्भर रहना पड़ेगा, जिससे संचालन लागत बढ़ेगी और रणनीतिक स्वतंत्रता घटेगी।

इसके विपरीत, रूस के साथ रक्षा सहयोग ने भारत के स्वदेशी उत्पादन को गति दी है। ब्रह्मोस मिसाइल, सुखोई-30 विमान और AK-203 राइफल जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स का भारत में निर्माण इसी का प्रमाण हैं। तकनीकी हस्तांतरण के अवसर और हमारे वैज्ञानिकों और अभियंताओं की विशेषज्ञता के साथ, भारत उन्नत रक्षा उत्पादन की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ सकता है। रूसी साझेदारी केवल उपकरणों तक सीमित नहीं रही है, बल्कि इसने भारत को निर्माण प्रक्रिया में आत्मनिर्भर बनने में भी सहायता की है, जो अमेरिकी सहयोग से अपेक्षाकृत कठिन प्रतीत होता है।

इसलिए यदि हम अमेरिकी दबाव के कारण रूस से दूरी बनाते हैं, तो हमें दीर्घकालिक रणनीतिक नुकसान हो सकता है। कम टैरिफ के बदले महंगे हथियार, तकनीकी सीमाएँ और बढ़ती निर्भरता स्वीकार करना घाटे का सौदा साबित होगा। अमेरिका से मिलने वाली कोई भी टैरिफ छूट बढ़े हुए रक्षा खर्च को वैसे भी ढक देगी।

निष्कर्ष: स्वदेशी उद्योग हमारे सुरक्षा कवच हैं

यह विवाद केवल व्यापार तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक प्रकार से भारत की सम्प्रभुता को चुनौती देने का षड्यंत्र है। ऐसे समय में, हमारी सबसे बड़ी ताक़त हमारी स्वदेशी औद्योगिक क्षमताएँ हैं। जिस प्रकार हमने कोविड के संकट में अपने चिकित्सकों के पीछे एकजुटता दिखाई थी, उसी प्रकार अब हमें अपने वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, उद्योगपतियों और तकनीकी विशेषज्ञों के पीछे खड़ा होना होगा।

अब समय है कि हम उच्च तकनीक क्षेत्रों में घरेलू उत्पादन को नई दिशा और दीर्घकालिक आत्मनिर्भरता को प्राथमिकता दें। हमें याद रखना चाहिए कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता, गरिमा और संप्रभुता अनगिनत बलिदानों से अर्जित विरासत है और इनका कोई विकल्प संभव नहीं है।

सौभाग्यवश, हाल की चुनौतियों के बीच हमारी अर्थव्यवस्था ने काफी स्थिरता दिखाई है। एस एंड पी ग्लोबल रेटिंग्स ने भारत की क्रेडिट रेटिंग को 2007 के बाद पहली बार ‘BBB-’ से बढ़ाकर ‘BBB’ कर दिया है। जब 6 अगस्त को अमेरिका ने भारतीय वस्तुओं पर 50 प्रतिशत शुल्क लगाने की घोषणा की, तब भी भारतीय शेयर बाजार तुलनात्मक रूप से शांत बने रहे। यह बाज़ार के भारत की दीर्घकालिक क्षमता पर भरोसे को दर्शाता है। फिर भी, हमें सजग रहना होगा। बाहरी षड्यंत्र या विघटन के प्रयासों की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। 13 अगस्त को, पाकिस्तानी सेना प्रमुख असीम मुनीर ने अमेरिका के फ्लोरिडा में एक औपचारिक रात्रिभोज के दौरान कथित रूप से कहा कि जामनगर स्थित रिलायंस रिफाइनरी भविष्य के किसी सैन्य संघर्ष में संभावित लक्ष्य हो सकती है। यह धमकी भरा बयान अमेरिकी भूमि पर दिया गया, परन्तु वाशिंगटन की ओर से कोई सार्वजनिक खंडन या असहमति सामने नहीं आई।

इसके कुछ दिन बाद, 20 अगस्त को अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने आरोप लगाया कि भारत के कुछ सबसे धनी परिवारों ने रूसी तेल से 16 अरब डॉलर से अधिक का ‘अतिरिक्त लाभ’ कमाया है। यह इशारा फिर से रिलायंस इंडस्ट्रीज़ की ओर दिखाई देता है। इन घटनाओं की शृंखला संयोग है या किसी बाहरी विघटन की शुरुआत, यह समय ही बताएगा। लेकिन यह भी विचारणीय है कि क्या भारत के प्रमुख औद्योगिक संस्थानों को निशाना बनाकर उन्हें डराने, बदनाम करने या कमज़ोर करने का प्रयास हो रहा है। ऐसे किसी भी बाहरी हस्तक्षेप की आशंका को हल्के में नहीं लिया जा सकता जो हमारे आर्थिक हितों, सामाजिक स्थिरता या राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित कर सकता हो।

(लेखक कोई विदेश नीति, रक्षा या अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ नहीं हैं। यह लेख एक आम नागरिक के रूप में उन चर्चाओं से प्रेरित है जो हाल की घटनाओं के चलते अब लगभग हर भारतीय के घर तक पहुँच चुकी हैं। यह उसी संवाद का एक विस्तार है, जिसे साझा करना लेखक ने आवश्यक समझा।)