5 सालों में SBI का 1 लाख करोड़ उद्योगपतियों ने डूबा दिया, लेकिन किसानों और शिक्षा के लिए नहीं है सरकार के पास पैसे!

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JNU में फीस वृद्धि को लेकर हो रहे आंदोलन कर रहे विद्यार्थियों और अपनी माँगो को लेकर यूपी के उन्नाव में परदर्शन कर रहे किसानों पर हुए लाठी चार्ज अलग दिखते ज़रूर हैं, दोनों मुद्दे भी अलग हैं लेकिन जो लोग पुलिस की लाठी खा रहे वो लोग अलग नहीं हैं. दोनों हीं घटनाओं में जिन लोगों पर लाठी चलाई जा रही वो आर्थिक रूप से कमज़ोर तबके के लोग हैं. दोनों मामले ऐसे लोगों से जुड़ा है जिन्हें साथ किए बिना देश को आगे बढ़ाने या देश की विकास की कल्पना अनुचित होगी.

पार्टी कोई हो या कोई नेता हो, जब जनहित के लिए काम करने ही बात आती है तो सब एक जैसे निकलते हैं, चुनाव जितने के लिए तरह-तरह के वादे किए जाता हैं. वादे किए जाते हैं कहना काफ़ी नहीं होगा बल्कि ये कहना चाहिए की जनता को नए-नए तरीक़ों से बेवकूफ बनाया जाता है. चुनाव के समय नेता कुछ भी बोलते हैं और कुछ भी करने को तैयार होते हैं क्योंकि उन्हें पता होता है अगर वोट मिल गया तो फिर अगले 5 साल राजा के तरह रहेंगे और जनता वही की वही, यही हमेशा से होता रहा है और शायद आगे भी होता रहेगा.

गलती नेताओं की नहीं है बल्कि जनता की है जो हर बार विभिन्न कारणों से नेताओं की बातों में आ जाते हैं, जनता जात-पात, धर्म, क्षेत्रवाद, और नेताओं के जुमले में फँस कर वोट देती है और जब वादे पूरे नहीं होते तो कोई सवाल भी नहीं करता, फिर एक दिन कभी किसी मुद्दे पर आंदोलन होती है और तब जाकर जनता आक्रामक होती है, नहीं होनी चाहिए.

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उन्नाव में ज़मीन अधिग्रहण को लेकर किसानों की आंदोलन उग्र हो गई जिसके बाद पुलिस ने भी जमकर लाठी भांजा, इस झड़प में एएसपी और डीएसपी सहित सात पुलिसकर्मी घायल भी हो गाए. जिस ज़मीन के कारण किसानों का परिवार चलता है उसे विकास के नाम पर अधिग्रहण कर बंदरबाँट किया जा रहा है. ऐसा कोई मुआवजा नहीं है जो किसी परिवार के पूरी ज़िंदगी चला सके, और किस बात का उद्योग और विकास जब लोगों का या तो भूख या प्रदूषण से बुरा हाल हो, मार रहे हो.

आजकल 5 ट्रिल्यन वाल जुमला ख़ूब चल रहा लेकिन किस बात 5 ट्रिल्यन डॉलर इकॉनमी जब सरकार देश की सबसे अच्छी शिक्षण संस्थान के 8000 विद्यार्थियों के लिए पैसे नहीं दे सकती. जिस JNU के विद्यार्थियों को देश की मीडिया बदनाम कर रही और उसे UGC ने अपने सर्वे में लगातार देश की सबसे अच्छी संस्था माना है. JNU देश ही नहीं पूरी दुनिया में विश्वविद्यालय का और देश का नाम ऊँचा किया है, जिसका एक उदाहरण इस साल अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी हैं जो JNU के क्षात्र रहे हैं. देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन JNU की से पढ़ी हैं.

JNU देश की सबसे अच्छी शिक्षण संस्थान है और यहाँ लगभग 40 प्रतिसत लोग आर्थिक रूप से बेहद कमज़ोर तबके से आते हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले बेहद कठिन प्रवेश परीक्षा में अपनी लगन और मेहनत से पास कर आते हैं. इसलिए अफ़सोस होता है जब सरकार के गोद में बैठी मीडिया इस संस्था और यहाँ पढ़ने वालों के बारे में दुष्प्रचार करती है.

मीडिया पुरे आंदोलन को इस तरह से दिखा रही जैसे की JNU में सिर्फ 10 रूपिये के लिए आंदोलन किया जा रहा और मीडिया JNU के फीस की तुलना महँगे निजी शिक्षण संस्थान से कर रही है जो अपने आप में एक इशारा है सरकार के इरादों का. सोशल मीडिया पर अचानक फिर से शक्रिय हुए सरकार समर्थकों और मीडिया द्वारा ऐसा दिखाया जा रहा की 10 रूपिया से 300 रूपिया होस्टल चार्ज किया गया जिसके लिए आंदोलन किया जा रहा; लेकिन, कोई पूरी बात नहीं कर रहा क्योंकि वो ना सरकार के ना सरकार समर्थित मीडिया और लोगों के एजेंडे से मेल कह रही, वो वही दिखा रहे जिसे देख ऐसा लगे की JNU गलत है.

JNU के साल 2017-18 के आकरों के अनुसार यहाँ 40 प्रतिसत ऐसे स्टूडेंट्स पढ़ते हैं जिनके परिवार की कुल मासिक आय लगभग 12,000 है. इसमें बहुत स्टूडेंट्स ऐसे होंगे 12,000 से 15,000 मासिक आय वाले भी होंगे, जिनके लिए बढ़ी हुए फीस दे पना बहुत मुश्किल होने वाल है, कई क्षात्रों ने मीडिया को बताया अगर फीस नहीं घटाई जाती है तो उन्हें अपनी पढ़ाई बंद करनी होगी. देश भर से चुन कर आए गरीब और निचले तबके से आने वाले परिवारों के बच्चों को क्या अच्छी शिक्षा से वंचित रखना जायज है? बढ़ी हुई फीस लागू होने के बाद JNU देश का सबसे सस्ता से सबसे महँगा सेंट्रल यूनिवर्सिटी बन जाएगा.

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लोग चाहे JNU में आंदोलन कर रहे विद्यार्थियों का जितना मज़ाक़ बना ले जितनी गली दे लेकिन उन विद्यार्थियों को पता है की ये उनके ज़िंदगी का सवाल है अगर आज वो चुप रहे तो वो और उनके जैसे अन्य बच्चे अच्छी शिक्षा से वंचित रह जाएँगे.

मीडिया द्वारा JNU के बढ़े हुए फीस को निजी संस्थानों से तुलना कर दिखाया जाना दर्शाता है सरकार और सरकार के लोगों के इरादे को, वो दिखा रहे की निजी और सरकारी शिक्षण संस्थानों के बीच की जो दूरी है उसे कम किया जा रहा. ये तुलना दिखता है सरकर की साज़िश को जिसमें सरकारी शिक्षा को इतना महँगा कर दिया जाएगा की वो आमलोगों की पहुँच से दूर हो जाएगा और वहाँ से निजीकरण का रास्ता भी आसान होगा, साथ ही देश के वर्तमान शिक्षा मंत्री जैसे बड़े-बड़े नेताओं, उद्योगपतियों और शिक्षा माफिया ने जो शिक्षा का बाज़ार बनाया है वो भी आराम से फले फूलेगा.

बता दें की केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री के कॉलेज में बढ़े फीस को लेकर उत्तराखंड में महीनों से क्षात्र आंदोलन कर रहे हैं लेकिन कोर्ट से आदेश आने के बाद भी मंत्री जी के कॉलेज में क्षात्रों की माँगों को पूरा नहीं किया जा रहा.

अगर सब ऐसे हीं चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब सरकारी कंपनियों के तरह बड़े-बड़े सरकारी शिक्षण संस्थानों को भी उद्योगपतियों और शिक्षा माफिया के हाथों देशहित के नम पर बेच दिया जाएगा.

JNU के क्षात्र आज सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि देश की चौपट हो चुकी सरकारी शिक्षा वेवस्था के लिए सड़क पर है, लोगों के अच्छी शिक्षा के अधिकार के लिए सड़क पर है. जिस तरह से देश में शिक्षा का निजीकरण के रास्ते पर सरकार द्वारा धेकेल जा रहा और मनमाना फीस वसूला जा रहा वो दिन दूर नहीं जब शिक्षा उन्ही लोगों के लिए होगा जिनके पास पैसे होंगे, जो आर्थिक रूप से कमज़ोर या निचले तबके के हैं उनके लिए अपने बच्चों को अच्छे शिक्षण संस्थान में पढ़ना बस एक ख़्वाब बनकर रह जाएगा.

सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास के स्लोगन में अगर सचाई होती तो शायद सरकार ऐसा क़दम नहीं उठाती कम से कम क्षात्रों पर लाठी डंडे तो नहीं बरसाती. JNU पर सवाल उठाने वाले मीडिया और Taxpayers के पैसों की बर्बादी की दुहाई देने वाले लोगों को तब बर्बादी नहीं दिखती जब एक के बाद के Taxpayers के पैसों से बनी सरकारी कम्पनियों को सरकार बेच रही है और जब उद्योगपतियों के लाखों करोड़ों लोन राइट-ऑफ कर दिए जाते हैं. जिस पैसे को लेकर और नेताओं से साथ मिलकर बैंकों को चपत लगा उद्योगपति देश से बाहर भाग रहे वो भी Taxpayers के यानी हमारे पैसे हैं.

Business Today में 14 November को प्रकाशित एक ख़बर के अनुसार पिछले 5 सालों में 1.63 लाख करोड़ कर्ज राइट-ऑफ किए गाए हैं. इन कम्पनियों में शामिल है Alok Industries, Tata Steel BSL (formerly Bhushan Steel), Electrosteel Steels, SKS Power Generation and Aban Holdings, ABG Shipyard, Tecpro Systems, Corporate Power Ltd, Monnet Ispat & Energy and Rohit Ferro Ltd.

1.63 लाख करोड़ के NPA में सबसे बड़ा हिस्सा Rs 99,838 करोड़ उद्योगपतियों, ऐग्रिकल्चर से सबंधित Rs 27,577 करोड़, Rs 25,205 करोड़ छोटे और मंझले उद्योग Rs 7,142 करोड़ पर्सनल लोन और कर Rs 1,874.

क्या होता है राइट-ऑफ या बट्टा खाता?

बैंक ग्राहक के ऐसे कर्ज को अपने बहीखाते से राइट-ऑफ किया जाता है या बट्टा खाता में डाल दिया जाता है, जिसके हासिल होने की उम्मीद नहीं होती या बैंकरप्शी कोड के तहत मामला निपटाने की वजह से जिसमें कुछ रियायत दे दी जाती है. इसका मतलब यह है कि बैंक यह मान लेती है कि यह कर्ज डूब चुका है. ऐसे जो भी पैसे डूबते हैं वो Taxpayers के यानी हमारे हीं हैं और इस बढ़ती बट्टा खाता की लिस्ट से नुक़सान भी हमारा है.

जनता के पैसे का असली बर्बादी नेता करते हैं, नेता चाहे हत्या का आरोपी हो या बलात्कार को उसे सभी सरकारी सुख सुविधाएँ दी जाती है, गाड़ी, घर, बिजली पानी सब सरकार के तरफ़ से मुहैया कराया जाता है. और इसके बाद भी नेता घोटाला करते हैं और गाय के गोबर में सोना तलाशते हैं. सिर्फ़ एक बार चुनाव जितने के बाद नेता करोड़ों की सम्पति बना लेते हैं, इसके बावजूद कार्यालय से लेकर आवास तक हर जगह सरकारी सब्सिडी का लाभ मिलता है. जनता के हज़ारों करोड़ विदेश दौरे और बैनर पोस्टर पर खर्च कर दिया जाता है क्या तब हमारे पैसे की बर्बादी नहीं होती है?