बिहार में अब तक 144 बच्चों की मौत, मामला अब सुप्रीम कोर्ट में

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बिहार में एक्यूट एंसिफलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) या चमकी-बुखार से मरने वाले बच्चों की संख्या अब 144 पार कर चुकी है ध्यान रहे ये सिर्फ़ मीडिया में चल रहे सरकारी आंकरे हैं. मरने वाले बच्चों का वास्तविक आँकरा इससे कहीं अधिक हो सकता है क्योंकि ये वो आंकरें हैं जो सरकारी अस्पताल में चमकी-बुखार से हुए बच्चों की मौत के हैं. बहुत से ऐसे बच्चे भी होंगे जो आस पास के किसी निजी अस्पतालों में होंगे या कई ऐसे बच्चे भी होंगे जो अस्पताल तक नहीं पहुँच पाए होंगे. दिन ब दिन बढ़ती बच्चों की मौत की संख्या, चौपट स्वास्थ्य व्यवस्था और निर्दय नीतीश सरकार को देख कर हालात सम्हालता नहीं दिख रहा है.

मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल हुई है जिसमें राज्य और केन्द्र सरकार को इलाज के पुख्ता इंतजाम करने का निर्देश दिये जाने की मांग की गई है. इस याचिका पर बुधवार को कोर्ट से शीघ्र सुनवाई की मांग भी हो सकती है. दाखिल जनहित याचिका में कहा गया है कि बिहार सरकार बीमारी को फैलने से रोकने में नाकाम रही है इसलिए कोर्ट और केन्द्र सरकार मामले में दखल दे. साथ ही कोर्ट से आग्रह किया गया है की निजी अस्पतालों को बीमार बच्चो का मुफ्त में इलाज करने के लिए बिहार सरकार आदेश जारी करे.

बता दें की सिर्फ़ मुजफ्फरपुर में बच्चों की मौत का आंकड़ा 112 से अधिक हो गया है, ये वही जगह है जहाँ देश भर की मीडिया मौजूद है और एक के बाद एक कई नेता लगातार फ़ोटो खिचवाने आते हैं. ऐसे जगह पर भी मरिजों को देखने के लिए डॉक्टर उपलब्ध नहीं है जरूरी दवाएयाँ नहीं है. ये है लम्बी लंबी हाँकने वाली नीतीश सरकार के दस साल तक शासन के बाद का बिहार. नीतीश कुमार और उनकी सरकार सीधे सीधे ज़िम्मेदार है इन बच्चों की मौत के और इसके बाद भी कुछ बेहतर नहीं होने वाला है क्योंकि यही हमारे देश की राजनीतिक कल्चर या चलन है जो नेता ने बनाया है और जनता चला रही है.

जब तक लोग चोर, उचक्के, बलात्कारी, गुंडे, भ्रष्टाचारी, और माफ़िया छवि के लोगों को अपना नेता चुनती रहेगी तब तक ये सब होता रहेगा. ऐसे नेता उनके इशारे पर चलने वाले सरकारी विभागों का सत्यानाश करते रहेंगे. आज बिहार में स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था जैसे प्राथमिक जरूरी सुविधाओं की जो हालत है वो सिर्फ़ नेताओं के वजह से नहीं बल्कि राज्य के जनता के वजह से भी है क्योंकि जनता ने आज तक कभी चुनाव के समय अपनी इन जरूरी सुविधाओं की बात नहीं की और ना कभी जान प्रतिनिधि की जिम्मेदारी तय करने की बात की है.

ये पहली बार नहीं है जब इतनी बरी सांख्य में ग़रीब बच्चों की मौत हुई है, ये हर साल होता है लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुवा क्योंकि सरकार और सरकारी विभागों को लगता है की इन ग़रीब लोगों की आवाज़ में उतना दम नहीं है और ना उनकी किसी के प्रति जिम्मेदारी और जवाबदेही है. अगर नेताओं की जिम्मेदारी तय होती तो ऐसा कभी नहीं होता कम से कम इतनी बरी संख्या में तो बच्चे नहीं मरते, देश में नेताओं के लिए अलग से क़ानून होनी चाहिए जिसमें सभी प्रकार की राजनीतिक लापरवाही के सज़ा होनी चाहिए.

लेकिन, विडम्बना है की इस देश में क़ानून बनने की जिम्मेदारी हमने ऐसे नेताओं को दी है जिसपर हत्या, डकैती, बलात्कार, भ्रष्टाचार, आतंकवाद जैसे संगीन अपराध के मुक़दमे चल रहे हैं और ऐसे लोगों से उन्ही की जिम्मेदारी तय करने के लिए क़ानून बनने की कल्पना करना मूर्खता से काम नहीं होगा. वो जब चाहे अपनी तनख्वाह बढ़ा सकते हैं, पार्टी की मिलने वाले चंदे को छुपाने के लिए क़ानून बना सकते हैं लेकिन आम लोगों के भले के लिए ऐसे क़ानून नहीं बना सकते जिमसे ख़ुद नेताओं के फ़सने की सम्भावना हो और ज़रूरत भी क्या है क्योंकि काम तो चल हीं रहा है. भगवान भरोसे चल रहे बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था का भगवान ही भला करे.