शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने भारत को आजाद होने में मुख्य भूमिका निभाई थी. 7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह, सुख देव और राज गुरु को विशेष न्यायलय द्वारा मौत की सजा सुनाई गयी। भारत के तमाम राजनैतिक नेताओं द्वारा अत्यधिक दबाव और कई अपीलों के बावजूद 23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई.
फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- “ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले.” फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले – “ठीक है अब चलो।”
इनको तय दिन और समय से 11 घंटे पहले ही फांसी पर चढ़ा दिया गया था. इस दिन को हर वर्ष शहीद दिवस के रूप में मनाते हैं. इस लेख में हम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की शहादत को याद करते हुए उनसे जुड़े कुछ अनजाने तथ्यों का विवरण दे रहे हैं.
भगतसिंह
- शहीदे आज़म भगत सिंह का जन्म 27 सितम्बर, 1907 को गाँव बावली, जिला लायलपुर, पंजाब (अब पाकिस्तान में) में हुआ था.
- 8 वर्ष की छोटी उम्र में ही वह भारत की आजादी के बारे में सोचने लगे थे और 15 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपना घर छोड़ दिया था.
- भगत सिंह के माता-पिता ने जब उनकी शादी करवानी चाही तो वह कानपुर चले गए, उन्होंने अपने माता-पिता से कहा कि “अगर गुलाम भारत में मेरी शादी होगी तो मेरी दुल्हन मौत होगी” इसके बाद वह “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” में शामिल हो गए.
- भगत सिंह ने अंग्रेजों से कहा था कि “फांसी के बदले मुझे गोली मार देनी चाहिए” लेकिन अंग्रेजों ने इसे नहीं माना. इसका उल्लेख उन्होंने अपने अंतिम पत्र में किया है. इस पत्र में भगत सिंह ने लिखा था, चूंकि “मुझे युद्ध के दौरान गिरफ्तार किया गया है, इसलिए मेरे लिए फाँसी की सजा नहीं हो सकती है. मुझे एक तोप के मुंह में डालकर उड़ा दिया जाय.“
- भगत सिंह ने जेल में 116 दिनों तक उपवास किया था. आश्चर्य की बात यह है कि इस दौरान वे अपने सभी काम नियमित रूप से करते थे, जैसे- गायन, किताबें पढ़ना, लेखन, प्रतिदिन कोर्ट आना, इत्यादि.
- ऐसा कहा जाता है कि भगत सिंह मुस्कुराते हुए फांसी के फंदे पर झूल गए थे. वास्तव में निडरता के साथ किया गया उनका यह अंतिम कार्य “ब्रिटिश साम्राज्यवाद को नीचा” दिखाना था.
- ऐसा कहा जाता है कि कोई भी मजिस्ट्रेट भगत सिंह की फांसी की निगरानी करने के लिए तैयार नहीं था. मूल मृत्यु वारंट की समय सीमा समाप्त होने के बाद एक मानद न्यायाधीश ने फांसी के आदेश पर दस्तखत किया और उसका निरीक्षण किया.
- जब उसकी मां जेल में उनसे मिलने आई थी तो भगत सिंह जोरों से हँस पड़े थे. यह देखकर जेल के अधिकारी भौचक्के रह गए कि यह कैसा व्यक्ति है जो मौत के इतने करीब होने के बावजूद खुले दिल से हँस रहा है.
सुखदेव
- सुखदेव का जन्म पंजाब के लुधियाणा के नौघरा गाँव में में 15 मई 1907 को हुआ था, उनका का पूरा नाम सुखदेव थापर था.
- सुखदेव फंसी की सजा मिलने पर डरने की बजाय खुश थे. फांसी से कुछ दिन पहले महात्मा गांधी को लिखे एक पत्र में उन्होंने कहा था कि “लाहौर षडयंत्र मामले के तीन कैदी को मौत की सजा सुनाई गई है और उन्होंने देश में सबसे अधिक लोकप्रियता प्राप्त की है जो अब तक किसी क्रांतिकारी पार्टी को प्राप्त नहीं है.उनका मानना था की भारत के आज़ादी के आन्दोलन को उनके जिन्दा रहने से ज्यादा लाभ उन्हें फांसी देने से प्राप्त होगा, उनका फंसी और भी युवाओं को प्रेरित करेगा.
- आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि सुखदेव ने ही भगत सिंह को असेम्बली हॉल में बम फेंकने के लिए राजी किया था. वास्तव में “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन “ द्वारा असेम्बली हॉल में बम फेंकने के लिए बटुकेश्वर दत्त के साथ किसी दूसरे व्यक्ति को नियुक्त किया गया था. लेकिन सुखदेव के कहने के बाद भगतसिंह ने खुद असेम्बली हॉल में बम फेंकने का निर्णय लिया.
- सुखदेव अपने बचपन के दिनों से ही काफी अनुशासनात्मक और कठोर थे. स्कूल के दिनों में भी जब एक ब्रिटिश सैन्य अधिकारी को सलामी न करने के कारण उन्हें छड़ी से पीटा गया तो उन्होंने उफ तक नहीं की. उन्होंने सैन्य अधिकारी द्वारा दी गई सजा को धीरज के साथ सहन किया और अपने हाथ पर “मारखाना” खुदवाया था जिसका मतलब है कि वह दूसरों द्वारा पीटे जाने के लिए ही पैदा हुए हैं.
राजगुरू
- राजगुरू का पूरा नाम शिवराम हरी राजगुरू था और उनका जन्म पुणे के निकट खेड़ में हुआ था.
- शिवराम हरि राजगुरू बहुत ही कम उम्र में वाराणसी आ गए थे जहां उन्होंने संस्कृत और हिंदू धार्मिक शास्त्रों का अध्ययन किया था. वाराणसी में ही वह भारतीय क्रांतिकारियों के साथ संपर्क में आए. स्वभाव से उत्साही राजगुरू स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देने के लिए इस आंदोलन में शामिल हुए और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) के सक्रिय सदस्य बन गए.
- राजगुरू महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए अहिंसक सिविल अवज्ञा आंदोलन में विश्वास नहीं करते थे. उनका मानना था कि उत्पीड़न के खिलाफ क्रूरता ब्रिटिश शासन के खिलाफ अधिक प्रभावी था, इसलिए वह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी में शामिल हुए थे, जिनका लक्ष्य भारत को किसी भी आवश्यक माध्यम से ब्रिटिश शासन से मुक्त करना था. उन्होंने भारत की जनता को अंग्रेजों के क्रूर अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए इच्छुक नवयुवकों को इस क्रांतिकारी संगठन के साथ हाथ मिलाने का आग्रह किया.
- राजगुरू शिवाजी और उनकी गुरिल्ला युद्ध पद्धति से काफी प्रभावित थे.
- इस महान स्वतंत्रता सेनानी के जन्मस्थान खेड़ का नाम बदलकर उनके सम्मान में राजगुरूनगर कर दिया गया है. हरियाणा के हिसार में भी उनके नाम पर एक शॉपिंग कॉम्प्लेक्स का नाम रखा गया है.
- राजगुरू को उनकी निडरता और अजेय साहस के लिए जाना जाता था. उन्हें भगत सिंह की पार्टी के लोग “गनमैन” के नाम से पुकारते थे.