“यह एक पूरी पीढ़ी को विनाश के कगार से वापस मोड़ने के लिए है। आइए हम इसे सम्भव बनायें।” – सद्गुरु
21 मार्च, 2022 को 65 वर्षीय सद्गुरु ने 26 देशों की 30,000 किलोमीटर लंबी मोटरसाइकिल रैली शुरू की, यह रैली UK में लंदन से शुरू होकर दक्षिण भारत में समाप्त होने जा रही है। यह यात्रा सौ दिनों में पूरी होगी। इस यात्रा के साथ सद्गुरु हमारे खेतों में तेजी से घटती उर्वरता एवं उससे जुड़ी प्राकृतिक आपदाओं के बारे में जागरूकता बढ़ाना चाहते हैं। इस लेख में हम इस संकट की गम्भीरता और सद्गुरु की इस जोखिम भरी सड़क यात्रा के कारणों को समझेगें।
जीवित अथवा उपजाऊ मिट्टी में जैव विविधता और जैविक सामग्री का एक पर्याप्त स्तर हमेशा बना रहता है। वैज्ञानिकों के अनुसार, एक मुट्ठी भर स्वस्थ मिट्टी में कम से कम 3% कार्बनिक सामग्री और 10 अरब से अधिक जीवाणुओं सहित केंचुए, कीड़े और चीटियों जैसे अन्य जीव होते हैं। अनेकों ऐसे जीव ऊपरी मिट्टी की जैव विविधता का गठन करते हैं, जो एक प्राकृतिक रीसाइक्लिंग कारखाने के रूप में कार्य करता है तथा मानव सहित अन्य सभी जीवो के लिए जैव अपशिष्ट को अकार्बनिक पदार्थ में परिवर्तित करता है।
कई स्कूली पाठ्यपुस्तकों में आहार शृंखलाओं का वर्णन करते हुए पौधों को नीचे की ओर तथा शीर्ष परभक्षियों को ऊपर की ओर दर्शया जाता है। विज्ञान जगत में यह मात्र एक स्वीकृत परंपरा की तरह है। परंतु इस परंपरा के कारण अक्सर युवाओं के अवचेतन मन में वर्चस्व की प्रधानता स्थापित हो जाती है, जिसके फलस्वरूप वे अन्य जीवों और विशेष रूप से पौधों को बस एक संसाधन के रूप में देखने लग जाते हैं। यह परिप्रेक्ष्य दोषपूर्ण है, क्योंकि वास्तव में पौधे हीं हमारे ग्रह पर भोजन (और ऑक्सीजन) के एकमात्र उत्पादक हैं। वे मिट्टी की खाद और कार्बन डाइऑक्साइड को सूरज की रोशनी की मदद से भोजन और ऑक्सीजन में बदल देते हैं। इस प्रक्रिया को हम प्रकाश संश्लेषण कहते हैं। किसी भी आहार शृंखला में सभी जानवर और मनुष्य पूरी तरह प्रकाश संश्लेषण द्वारा बनाए गए पोषण पर ही निर्भर होते हैं। इस कारण पौधे हमारी धरती पर जीवन के एकमात्र स्रोत हैं। शायद अब समय आ गया है कि हम आहार शृंखलाओं को दर्शाने की वर्तमान परंपरा पर पुनः विचार कर पौधों को उनके महत्त्व के अनुरूप दर्शाना प्रारंभ करें।
आप सोच सकते हैं, “आख़िर हमें क्यों चिंतित होना चाहिए?” इसका उत्तर यह है कि दुनिया की 65% से अधिक कृषि भूमि बंजर होने की कगार पर पहुँच चुकी है। अगले 25-40 वर्षों में अधिकांश कृषि भूमि अपनी उर्वरता खोने वाली है, जो बड़े पैमाने पर वैश्विक अकाल का कारण बनेगी। आज अफ्रीका के बड़े हिस्से की भूमि में 0.3% और भारत के विभिन्न क्षेत्रों में 0.5% से भी कम जैविक सामग्री बची है। पृथ्वी के कई अन्य हिस्सों की भी लगभग ऐसी ही दशा है। संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों द्वारा हाल ही में किए गए अध्ययनों के अनुसार, हम औसतन हर सेकंड एक एकड़ उपजाऊ भूमि को खो रहे हैं (Source)। वहीं दूसरी ओर, मिट्टी का निर्माण (Pedogenesis) एक लंबी प्रक्रिया है। केवल तीन सेंटीमीटर ऊपरी मिट्टी के निर्माण में एक हजार साल तक का समय लग सकता है (Source)। यदि हम आज प्रयास प्रारंभ करते हैं तो अगले कुछ दशकों में इस परिस्थिति को बदल सकते हैं; अन्यथा इसकी क्षतिपूर्ति में सैकड़ों वर्ष लगेंगे।
आप में से कुछ लोग यह पूछ सकते हैं, “क्या हम इस संकट को दूर करने के लिए उर्वरकों का उपयोग नहीं कर सकते?” उत्तर यह है कि उर्वरक स्थायी समाधान नहीं है। मिट्टी में हम केवल रासायनिक यौगिकों और खनिजों को मिलाकर प्राकृतिक उर्वरता प्राप्त नहीं कर सकते, क्योंकि पौधों के पोषण में मिट्टी के सूक्ष्मजीवों की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सूक्ष्मजीव मिट्टी और पौधों की जड़ों के बीच आवश्यक खनिज पदार्थ के आदान-प्रदान में सहयोग करते हैं और पौधे भी उन जीवों को प्रकाश संश्लेषित ग्लूकोज के साथ पुरस्कृत करते हैं। पेड़ों के सूखे पत्तों और पशुओं के गोबर से मिट्टी की खोई हुई जैविक सामग्री की भरपाई होती है। इस प्रकार यह प्राकृतिक चक्र चलता रहता है। दूसरी ओर, उर्वरकों (और कीटनाशकों) का अत्यधिक उपयोग मिट्टी की जैव विविधता को नष्ट करनें के साथ मिट्टी में सूक्ष्मजीवों के जनसंख्या घनत्व को भी कम कर देता है। इससे फसलों और फलों में पोषण क्षमता कम हो जाती है। इसके अलावा उर्वरकों में मौजूद रसायन अक्सर आस-पास के जलाशयों तक अपना रास्ता खोज लेते हैं और वहाँ मौजूद जलीय जीवन को भी भारी क्षति पहुँचाते हैं।
अगला स्वाभाविक प्रश्न है, “तो मैं क्या कर सकता हूँ? मैं किसान नहीं हूं”। 29 मार्च, 2022 को जिनेवा (Geneva) में वैश्विक जैव विविधता ढांचे (Global Biodiversity Framework) पर 164 देशों के लगभग 1,000 वार्ताकारों के साथ संयुक्त राष्ट्र की बैठकें बिना किसी प्रगति के समाप्त हो गईं। इन बैठकों का लक्ष्य प्रकृति के नुकसान को दूर करने और कमजोर प्रजातियों की रक्षा हेतु व्यावहारिक उपाय करने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय सहमति बनाना था। इनमें से एक प्रस्तावित उपाय 2030 तक प्रत्येक देश की भूमि का 30% संरक्षित क्षेत्रों के रूप में आवंटित करना है। कीटनाशकों के उपयोग को कम करने जैसे 21 अन्य आवश्यक लक्ष्यों पर भी औपचारिक रूप से कोई सहमति नहीं बन पायी। (Source)
हमारा राजनीतिक वर्ग और विधायिकाएँ इस समस्या के तत्काल निवारण की आवश्यकता को उचित महत्त्व नहीं दे रहें हैं। शायद इसलिए कि वे ऐसी नीतियों के लिए जनता की राय के प्रति आश्वस्त नहीं हैं। इसलिए अभी हमें चाहिए कि हम समाज में जागरूकता बढ़ाएं और मतदाताओं को यह एहसास दिलाएं कि ऊपरी मिट्टी की जैव विविधता को बनाए रखना कितना महत्वपूर्ण है। इससे जलवायु परिवर्तन के साथ, यह समस्या भी सार्वजनिक बहस का हिस्सा बनेगी और अंततः मिट्टी के अधिक अनुकूल नई कृषि नीतियों को जन्म देगी, जो कृषि भूमि को फिर से जीवंत करेगी। सद्गुरु की यात्रा दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाने का एक अभूतपूर्व प्रयास है। तत्काल कार्रवाई हेतु मजबूत जनमत ही सरकारों को मिट्टी के कायाकल्प को लक्षित करने वाली नीतियाँ बनाने और तेजी से लागू करने के लिए प्रेरित कर सकता है। इस आंदोलन को समर्थन देने की अब हमारी बारी है। हमें मिलकर इसे संभव बनाना होगा।
#SaveSoil : वेबसाइट: https://consciousplanet.org/
(*व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं और जरूरी नहीं कि वे ईशा फाउंडेशन के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हों)