भोपाल गैस त्रासदी- आरोपी को राजीव गाँधी के आदेश पर सरकारी विमान से दिल्ली पहुँचाया गया

0
3243

जब से होश संभाला भोपाल मुझे दो बातों से याद रहता – पहला “झीलों का शहर” जिसका श्रेय GK की बुक को जाती है, दूसरा “भोपाल गैस त्रासदी “जिसका श्रेय बीबीसी हिंदी सेवा को जाता है. 1997-1998 दिन भर कार्यक्रम जो शाम के 7: 30 को प्रसारित कार्यक्रम में मैंने सुना की भोपाल शहर में किसी गैस के कारण लगभग 30,000 लोग मारे गए थे. घटना 1984 की थी. इस समाचार ने मुझे झकझोर कर रख दिया जो मुझे अब भी याद है.

3 दिसम्बर 1984 के मध्यरात्रि के बाद केमिकल फ़ैक्टरी Union Carbide से ज़हरीली गैस रिसाव के वजह से कुछ ही घंटों में हजारों लोग तड़प तड़प कर मौत की नींद सो गये. इसे हम सभी भोपाल त्रासदी के नाम से जानते है.
Union Carbide की फ़ैक्टरी भोपाल के बाहरी इलाकों में बना था. उसके आसपास वहां काम करने वाले बाहर से आने वाले मज़दूर और स्थानीय लोग कच्ची बस्तियों में रहते थे जो सबसे ज्यादा प्रभावित वो लोग ही हुए थे.

क्या हुआ था ?

यूनियन कार्बाइड के प्लांट नंबर ‘सी’ में हुए रिसाव से गैस के बादल बन गया था जो की हवा के साथ पूरे शहर को अपने चपेट में ले लिया, उस समय भोपाल की कुल आबादी 10 लाख थी जिसमें से लगभग आधी आबादी इससे प्रभावित हुई थी. यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी से करीब 40 टन गैस (Methyl Isocyanate (MIC)) का रिसाव हुआ था. Methyl Isocyanate (MIC) का मात्रा हवा में 21PPM (Parts Per Million) से ज्यादा होने से जहरीला हो जाता है. जो कुछ की मिनटों में इन्सान की जन ले सकता है. कहा जाता है की उस दिन फ़ैक्टरी के आसपास के इलाकों में इसकी मात्रा इससे कई गुना अधिक थी.

गैस के फैलते ही लोगों को साँस लेने में दिक्कत, ख़ासी तथा आँखों में जलन होने लगा. बहुत सारे लोग तो नींद में ही मारे गये. बहुत सारे अपने घरों से बाहर निकले जिससे की उसे स्वच्छ हवा मिल सके और वो गलियों में मारे गये.

भोपाल गैस त्रासदी एक पीड़ित की बात से इसे आसानी से समझा जा सकता है. उसने कहा “साहब अजीब सी विडंबना थी साँस ले तो मरे, न ले तो मारे जाएँ”

गैस लीक का कारण क्या था ?

वजह थी यूनियन कार्बाइड के प्लांट नंबर ‘सी’ के टैंक नंबर 610 में ज़हरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का पानी से मिल जाना. इससे हुई रासायनिक प्रक्रिया की वजह से टैंक में दबाव पैदा हो गया और टैंक का ढक्कन खुल गया.
जाँच में यह पाया गया था कंपनी के तरफ कई मानकों को नज़रंदाज़ किया गया था. जिसमें से सबसे प्रमुख स्पेसिलिस्ट इंजिनियर के जगह सामान्य मजदूरों की नियुक्ति जिसे वेतन देकर काम करवाया जा सके. उन मजदूरों को बस मशीन ऑपरेट करने सिखा दिया गया था लेकिन वे केमिकल रिएक्शन जैसे चीजों को कभी सोचा ही नहीं अन्यथा बहुत संभव था की ये दुर्घटना ना हुई होती.

मौतें इतनी ज्यादा क्यों हुई?

1.लोगों को मौत की नींद सुलाने में विषैली गैस को औसतन तीन मिनट लगे. ऐसे किसी हादसे के लिए कोई तैयार नहीं था. यहाँ तक कि कारखाने का अलार्म सिस्टम भी घंटों तक बेअसर रहा जबकि उसे बिना किसी देरी के चेतावनी देना था.
2.हाँफते और आँखों में जलन लिए जब प्रभावित लोग अस्पताल पहुँचे तो ऐसी स्थिति में उनका क्या इलाज किया जाना चाहिए, ये डॉक्टरों को मालूम ही नहीं था. डॉक्टरों की मुश्किलें शहर के दो अस्पतालों में इलाज के लिए आए लोगों के लिए जगह नहीं थी. वहाँ आए लोगों में कुछ अस्थाई अंधेपन का शिकार थे, कुछ का सिर चकरा रहा था और साँस की तकलीफ तो सब को थी. एक अनुमान के अनुसार पहले दो दिनों में क़रीब 50 हज़ार लोगों का इलाज किया गया. शुरू में डॉक्टरों को ठीक से पता नहीं था कि क्या किया जाए क्योंकि उन्हें मिथाइल आइसोसाइनेट गैस से पीड़ित लोगों के इलाज का कोई अनुभव ही नहीं था.

3.एक बड़े शहर के बीच यूनियन कार्बाइड फ़ैक्ट्री का अनुपयुक्त स्थान.
4.उपयुक्त आपदा प्रबंधन योजना का अभाव और इसकी पूर्व तैयारी के तौर पर स्थानीय लोगों के बीच इसके प्रसार का अभाव.
5.आपदा के तुरंत बाद तात्कालिक औरं दीर्घकालीन कार्रवाई का अभाव.

जाँच मुकदमा और राजनैतिक संरक्षण

जाँच में पाया गया की कम्पनी भारी नुकसान में चल रही थी, इसलिए कंपनी के मालिक एंडरसन ने सुरक्षा इंतजामों को अनदेखा किया था और वे सुरक्षा उपकरणों पर होने वाले खर्च से बचना चाहते थे. स्पेसिलिस्ट इंजिनियर के जगह सामान्य मजदूरों की नियुक्ति की गयी.

घटना के बाद कंपनी के मालिक वारेन एंडरसन की गिरफ़्तारी भी हुई. वारेन एंडरसन राजीव के बहुत करीबी थे. आदलत से जमानत मिलने के बाद एंडरसन को मध्यप्रदेश के सरकारी विमान से दिल्ली पहुँचाया गया. तत्कालिक प्रधानमंत्री ने उनके जाने की पूरी व्यवस्था करवा दी. एंडरसन वापस अपने देश अमेरिका लौट गया. कोर्ट की सुनवाही में उनको वापस भारत लाने की कई नाकामयाब कोशिशें हुई. त्रासदी के मुख्य आरोपी वॉरेन एंडरसन की भी मौत 29 सिंतबर 2014 को हो गयी.

यूनियन कार्बाइड को Dow Chemicals ने 2001 में ख़रीदा तो कई लोग यह मांग करने लगे की dow chemicals को इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए. लेकिन 2005 में कोर्ट ने Dow Chemicals को Summon करने से मना कर दिया. इस पुरे मामले में कंपनी ने अपने वेबसाइट लिखा है की Dow Chemicals ने भोपाल प्लांट को कभी भी ऑपरेट नही किया है. कंपनी की वेबसाइट पर इसे पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें.

यूनियन कार्बाइड ने अपने वेबसाइट पर अपना पक्ष सार्वजानिक किया है, पढने के लिए यहाँ क्लिक करें.
इस हादसे पर 2014 में फिल्‍म ‘भोपाल ए प्रेयर ऑफ रेन’ बनाया गया. दुखद बात यह की इस मामले में किसी को भी बड़ी सजा नही हुई. मुआबजे के नाम भी बस खाना पूर्ति ही की गयी. 34 साल जाने के बाद भी कई बच्चे विकलांग पैदा हो रहे हैं और वहां के पानी में अब भी जहर है.