आज जलियांवाला बाग में अंग्रेज़ों द्वारा किए गए नरसंहार की 100वीं बरसी है. 13 अप्रैल 1919 को अंग्रेजी हुकूमत ने भारतीय इतिहास का सबसे काला दिन बना दिया, जब ब्रिटिश शासन ने अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के पास जलियांवाला बाग में शांतिपूर्ण ढंग से सभा कर रहे भारतीयों पर अकारण गोलियाँ चलवा दीं जिसमें 1000 से अधिक निर्दोष व्यक्ति मरे और 2,000 से अधिक घायल हुए.
यह घटना बैसाखी के त्योहार के दिन हुई थी, वैसे तो बैसाखी पूरे भारत के प्रमुख त्योहारों में एक है परंतु इसे पंजाब और हरियाणा के किसानों के लिए ज्यादा ख़ास माना जाता है जिसे सर्दियों की रबी की फसल काटने के बाद नए साल की खुशियाँ के तौर पर मनाते हैं. 13 अप्रैल सिख समाज के लिए और भी ख़ास होता है क्योंकि 13 अप्रैल को हीं वर्ष 1699 में सिखों के दसवें और अंतिम गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी. इसीलिए बैसाखी पंजाब और आस-पास के प्रदेशों का सबसे बड़ा त्योहार है और सिख इसे सामूहिक जन्मदिवस के रूप में मनाते हैं. बैसाखी की इन खुशियों को सनकी अंग्रेजी अधिकारी जेनरल डायर ने मौत के मंजर में तब्दील कर दिया था.
वहाँ मौजूद लोग ब्रिटिश सरकार के रोलेक्ट ऐक्ट के विरोध में शांतिपूर्ण सभा कर रहे थे जिसमें बड़ी संख्या में बच्चे, बुजुर्ग, और औरतें भी शामिल थे. जलियांवाला बाग स्वर्ण मंदिर के पास हीं एक छोटे से पार्क जैसी जगह है जिसके चारों तरफ घर बना है और बीच में ये जगह है, बाग में अंदर बाहर जाने का एक मात्र संकीर्ण मार्ग है जिसको ब्रिटिश सिपाही ने घेर कर सभा में मौजूद लोगों पर गोलियाँ चला दी.
इस हत्याकांड के सबसे बड़े गुनहगार थे ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर (जेनरल डायर) और लेफ़्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर. ब्रिटिश राज के अभिलेख के अनुसार इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के मारे जाने की बात को स्वीकारा गया है, जिनमें से 337 पुरुष, 41 नाबालिग लड़के और एक 6-सप्ताह का बच्चा था. लेकिन अनधिकारिक आँकड़ों के अनुसार ब्रिटिश हुकूमत के इस जघन्य और अमानवीय हत्याकांड में 1000 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए थे.
उसी साल के अंत में इस हत्याकांड की जाँच कर रही हंटर कमिटी (Hunter Committee) के सामने जेनरल डायर ने स्वीकार किया कि गोली चला कर लोगों को मार देने का निर्णय पहले से ही ले कर वहाँ गया था और वह उन लोगों पर चलाने के लिए दो तोपें भी ले गया था जो कि जलियांवाला बाग में प्रवेश के लिए बने संकरे रास्ते से नहीं जा पाई थीं.
जलियांवाला बाग हत्याकांड की पूरी कहानी:
प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय लोगों ने खुल कर अंग्रेज़ों का साथ दिया था, भारतीय स्वतंत्रा के लिए लड़ रहे नेताओं और आम जनता ब्रिटिश सरकार से सहयोग और नरमी के रवैये की आशा कर रही थी लेकिन ब्रिटिश सरकार ने मॉण्टेगू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार लागू कर भारतीय की उम्मीद के विपरीत काम करना शुरू कर दिया. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान हीं पंजाब में अंग्रेज़ों का विरोध कुछ अधिक बढ़ गया था जिसे 1915 में भारत प्रतिरक्षा विधान लागू कर दबाने का प्रयास किया गया, जिसमें अंग्रेजी हुकूमत कुछ हद तक सफल भी रही.
साल 1918 में ब्रिटिश जज सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में बनी एक सेडीशन समिति ने 1915 में लागू किए गए भारत प्रतिरक्षा विधान का विस्तार कर रोलेट एक्ट के नाम से लागू कर दिया. इस क़ानून को लागू करने की पीछे अंग्रेजी हुकूमत की मंशा भारत में आज़ादी के लिए चल रहे आंदोलन को रोकने की थी. जिस ब्रिटिश सरकार से प्रथम विश्व युद्ध में साथ देने के बदले नरमी और सहयोग की अपेक्षा रहे थे उसने इस क़ानून के तहत और भी अधिक आक्रामक तरीके से दमन की कार्रवाई शुरू कर दी.
रोलेट एक्ट के अंतर्गत ब्रिटिश सरकार को प्रेस पर सेंसरशिप लगाने, भारतीय नेताओं को बिना मुकदमें के जेल में रखने, लोगों को बिना वॉरण्ट के गिरफ़्तार करने और बंद कमरों में बिना कारण बताए मुकदमा चलाने आदि के अधिकार दे दिए गए थे. रोलेक्ट ऐक्ट के लागू होने के बाद अंग्रेजी शासन और अधिक आक्रामक हो गया और देश भर में अंग्रेज़ों द्वारा भारतियों पर अत्याचार और भी अधिक होने लगा जिसके विरोध में पूरा भारत उठ खड़ा हुआ और देश भर में लोग गिरफ्तारियां देने लगे.
महात्मा गांधी समेत देश के सभी नेताओं ने जनता से रोलेट एक्ट का विरोध करने की अपील की जिसके बाद ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ आंदोलन और भी तेज़ हो गया, बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां होने लगी, लोगों ने कई सरकारी सेवाओं को ठप कर दिया था. पंजाब के क्षेत्रों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ ये आंदोलन अपने चरम पर था. लाहौर और अमृतसर की सड़कें लोगों से भरी रहती थीं.
उसी समय 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग में एक सभा का आयोजन किया गया जिसमें सैकड़ों की संख्या में लोग शामिल हुए. ब्रिटिश सरकार के कई अधिकारियों को यह 1857 के गदर की पुनरावृत्ति जैसी परिस्थिति लग रही थी जिसे दबाने के लिए कुछ भी करने को तैयार अंग्रेज़ों ने जलियांवाला बाग नरसंहार को अंजाम दिया था.
जलियांवाला बाग में इकट्ठा लोगों में सैंकड़ों लोग ऐसे भी थे, जो बैसाखी के मौके पर परिवार के साथ मेला देखने और शहर घूमने आए थे और सभा की खबर सुन कर वहां जा पहुंचे गये थे. तभी ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर क़रीब 100 ब्रिटिश सैनिकों को लेकर वहां पहुँच गया. उन सब के हाथों में भरी हुई राइफलें थीं. सभा में आए नेताओं ने सैनिकों को देखा, तो उन्होंने वहां मौजूद लोगों से शांत बैठे रहने के लिए कहा.
अंग्रेजी सैनिकों ने जलियांवाला बाग को घेर कर बिना कोई चेतावनी दिए निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलानी शुरु कर दीं. 10 मिनट में कुल 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं. चारों तरफ़ से मकानों (इमारतों) से घिरा जलियांवाला बाग में मौजूद लोगों को भागने का कोई रास्ता नहीं था. जान बचाने के लिए लोग मैदान में मौजूद एकमात्र कुएं में कूदने लगे और देखते ही देखते वह कुआं लाशों से भर गया. बाद में कुल 120 लोगों की लाशें तो सिर्फ उस कुएं से निकाली गई.
पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार, कम से कम 1300 लोग मारे गए थे. स्वामी श्रद्धानंद के अनुसार मरने वालों की संख्या 1500 से अधिक थी जबकि अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉक्टर स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से अधिक थी.
जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला:
जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला उधम सिंह ने लिया. जलियांवाला बाग में मौजूद उधम सिंह अंग्रेज़ के गोली से घायल हो गाए थे और उन्होंने अंग्रेज़ों से बदला लेने का मन बना लिया. जेनरल डायर का 1927 में बीमारी की वजह मार गया. मगर माइकल डायर ज़िंदा था और ब्रिटेन लौट चुका था. माइकल ओ डायर से बदला लेने के लिए उधम सिंह 1934 में लंदन पहुंचे. वहां उन्होंने एक कार और एक रिवाल्वर खरीदी तथा सही मौके का इंतजार करने लगे.
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आखिरकार 21 साल बाद उधम सिंह को 13 मार्च 1940 को मौक़ा मिला. लंदन के कैक्सटन हॉल में लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर माइकल ओ डायर को उधम सिंह ने गोलियों से ढेर कर दिया. इसके बाद उधम सिंह भगने की कोशिश कीए बिना वहाँ मौजूद लंदन पुलिस को गिरफ़्तारी दी. कहा जाता है की उधम सिंह ने लंदन की अदालत में कहा कि मैं पूरे 21 साल से इस दिन का इंतज़ार कर रहा था. मैंने जो किया मुझे उस पर गर्व है. मुझे मौत का कोई खौफ नहीं क्योंकि मैं अपने वतन के लिए बलिदान दे रहा हूं. 31 जुलाई 1940 को उधम सिंह को फाँसी पर चढ़ा दिया गया.
उधम सिंह ने अपनी जान की परवाह किए बिना जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार का बदला लिया जो इस नरसंहार के पीड़ित परिवारों को न्याय दिलाने जैसा था. लेकिन, इसके वावजूद तात्कालिक कांग्रेस के दो सबसे बड़े नेता मोहन दास करमचंद गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने उधम सिंह द्वारा जलियांवाला बाग हत्याकांड के मुख्य दोषी माइकल ओ डायर की हत्या की निंदा की थी.
साल 1997 में महारानी एलिज़ाबेथ ने अपने भारत दौरे में जलियांवाला बाग में शहीद हुए लोगों को श्रद्धांजलि दी थी, और साल 2013 में जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन यहाँ आए तो उन्होंने विजिटर्स बुक में लिखा कि “ब्रिटिश इतिहास की यह एक शर्मनाक घटना थी.”