भारत का ओलम्पिक और अंतरराष्ट्रीय खेलों में गिने चुने पदक मिलते हैं जिसका कारण देश में खिलाड़ियों को मिलने वाली सुविधाओं का बदहाल होना एक प्रमुख कारन है. भारत के खिलाड़ियों ने ओलम्पिक या प्रमुख अंतरराष्ट्रीय खेलों में जो पदक जीता है उसमें पूर्णतः श्रेय उन खिलाड़ियों की अपनी मेहनत, हौसला और स्ट्रगल को जाता है; सम्बन्धित राज्य या केंद्र सरकार बाद में जो भी इनाम और सम्मान दे लेकिन पदक मिलने के ठीक पहले तक सारी खिलाड़ियों किस स्थिति बेहद ख़राब होती. हमने इस देश में खिलाड़ी को अपने जीवनयापन के लिए पदक बेचने पर मजबूर होते हुए भी देखा है.
क्या देश के नेताओं या देश की राजनीति को कोई फर्क परता है खिलाड़ियों की समस्याओं से या पदकों में हमेशा निचले पैदान पर देश का नाम होने से? इस सवाल का कभी एक जवाब नहीं हो सकता है, हमेशा दो जवाब होता है; अगर ऐसे खिलाड़ियों को के सफलता को भुना का राजनीतिक फ़ायदा मिल सकता है तो हाँ फर्क परता है वरना नहीं. वहीं अगर ऐसे किसी खिलाड़ियों ने अगर कभी किसी सत्ता पर सवाल उठा दिया तो नेताओं और उनके समर्थक ये भुल जाते हैं के उसी खिलाड़ी ने देश के लिए पदक जीता था और सभी ने सराहना में खूब #टैग घुमाया था.
इस देश में हमेशा से सरकार कभी भी किसी की भी हो, अच्छाई – बुराई, क़ानूनी – गैरकाननी और देशहित – देशअहित की परिभाषा इस बात पर निर्भर करती है की आप किससे सवाल कर रहे या किसपर सवाल उठा रहे हैं. अगर सवाल सत्ता को सूट कर रहा है तो सही है और अगर गलती से सवाल सरकार या सरकार के किसी करीबी पर उठाया जा रहा हो तो उसे ठीक नहीं माना जाता है. बात यही तक नहीं रुकती है, सरकार, सरकार के लोग और सरकार के समर्थक सवाल उठाने वाले को सोशल मीडिया से लेकर राष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों पर घेरते हैं, बदनाम करने की हरसंभव प्रयास करते हैं. यहाँ तक की कई मामलों में हमने देखा है की सत्तारुढ़ पार्टी के नेताओं पर सवाल उठाने वालों को देशद्रोही और आतंकी तक कहा जाता है.
ऐसे दौर में जब देश एक भी बड़ी राष्ट्रीय स्तर की मीडिया ऐसी नहीं हैं जिसमें बूता है सरकार से सवाल करने, भारत की कोई भी बड़ी न्यूज़ चैनल या अख़बार सरकार से सवाल करने के अपने मूल काम को छोर सरकार के गोद में बैठी है. कुछ बड़े न्यूज़ ऐंकर तो सरकार के प्रवक्ता के तरह रोज़ TV पर आकर वर्तमान सरकार का महिमामंडन कर रहे हैं, यहाँ तक देश की मीडिया में होड़ लगी है सरकार के फ़ेवरेट बनने की और इसी होड़ में अव्वल आने के लिए बड़े बड़े ऐंकर झूठ तक बोल जाते हैं, झूठ खबर दिखाया जाता है, प्राइम शो में डिबेट के नाम पर गली गलोज और मार पिटाई तक की जा रही; ये सब इसलिए हो रहा की लोगों का ध्यान सच से हटाया जा सके, लोगों को वही दिखाया जाय समझाया जाय जो सरकार दिखाना चाह रही जो सरकार समझाना चाह रही है.
यही वजह है की सरकारी तंत्रों और सरकार के करीबी लोगों से आजिज और परेशान कुस्ती के चैम्पीयन खिलाड़ियों ने सन्यास ले लिया और उन्हें देश के लिए ओलम्पिक में मेडल जितने के लिए सम्मान में मिले विभिन्न पुरुष्करों को वापस कर दिया. शायद इसीलिए क्योंकि अब उन्हें सरकार से न्याय की कोई उम्मीद नहीं बची थी. जिस नेता के खिलाफ महिला खिलाड़ियों ने यौन शोषण के आरोप लगाए उसे तत्काल गिरफ़्तार करना तो दूर, पोलिस FIR तक दर्ज नहीं कर पा रही थी. क्या ये सरकार का न्याय और सुरक्षा का वादा है देश की जानता से? अगर देश के लिए मेडल जितने वाली बेटियों को इंसाफ मिलना इतना मुश्किल है की सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बिना FIR तक दर्ज नहीं हो पाती वो भी यौन शोषण जैसे संगीन मामलों में तो गाँवों और कसबों में रहने वाली आम लोगों के लिए नेताओं और रसूखदारों के खिलफ FIR करा पाना और न्याय की उम्मीद रखना कितना कठिन है इसका अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता है.
साक्षी मलिक, विनेश फोगाट और बजरंग पूनिया BJP सांसद और भारतीय कुश्ती महासंघ (WFI) के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों को लेकर उनके खिलाफ प्रदर्शन करने वालों में मुख्य चेहरा रहे हैं. एक बड़े आंदोलन के बाद भी WFI के अध्यक्ष पद पर बृजभूषण सिंह के करीबी संजय सिंह के चुने जाने के बाद तीनों खिलाडियों का धक्का लगा और सरकार द्वारा किए गए वादे बेबुनियाद साबित हो गए, इससे हताश होकर शाक्षि मलिक ने कुश्ती छोड़ने का ऐलान किया था. वहीं बजरंग पूनिया ने पीएम मोदी को लेटर लिखते हुए कहा था कि वो अपने पद्मश्री लौटा देंगे. इसके बाद उन्होंने पद्मश्री फुटफाथ पर छोड़ दिया था.
क्या इतना मुश्किल है यौन शोषण जैसे संगीन मामले में न्याय की उम्मीद करना, क्या किसी देश में ये सम्भव है की देश के आम लोगों के लिए एक नियम और क़ानून हो और सत्तारुढ़ पार्टी के लोगों के लिए उसी नियम क़ानून की परिभाषा अलग हो.?