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उधम सिंह पंजाब के हीं भगत सिंह से बहुत प्रभावित थे. दोनों दोस्त भी थे. एक चिट्ठी में उन्होंने भगत सिंह का जिक्र अपने प्यारे दोस्त की तरह किया है. भगत सिंह से उधम सिंह पहली मुलाकात लाहौर जेल में हुई थी. इन दोनों क्रांतिकारियों की कहानियों को समझने पर बहुत दिलचस्प समानताएं दिखती है. दोनों का भारत के पंजाब क्षेत्र से हीं थे. दोनों ही नास्तिक थे. दोनों हिंदू-मुस्लिम एकता के पैरोकार थे. दोनों क्रांतिकारियों की जिंदगी की दिशा तय करने में जलियांवाला बाग हत्याकांड की बड़ी भूमिका रही. भगत सिंह और उधम सिंह को लगभग एक जैसे मामले में मौत की सजा हुई. भगत सिंह के हीं तरह तरह उधम सिंह ने भी फांसी से पहले कोई धार्मिक ग्रंथ पढ़ने से इनकार कर दिया था.
बचपन की मुश्किलें:
उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब में संगरूर जिले के सुनाम गांव में हुआ था. बचपन में उनका नाम शेर सिंह था. छोटी उम्र में ही माता-पिता का साया उठ जाने से उन्हें और उनके बड़े भाई मुक्ता सिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी. यहीं उन्हें उधम सिंह नाम मिला और उनके भाई को साधु सिंह. 1917 में उधम सिंह के परिवार के आख़री सदस्य और बड़े भाई साधु सिंह भी चल बसे. इन मुश्किलों ने उधम सिंह को दुखी तो किया, लेकिन उनकी हिम्मत और संघर्ष करने की ताकत भी बढ़ाई.
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स्वतंत्रता आंदोलन में पदार्पण:
13 April 1919 को जलिवाला बाग़ में हुए दर्दनाक नरसंहार के वक़्त उधम सिंह वहीँ बाग में मजूद थे, वो अंग्रेज़ों की गोली से घायल भी हो गाए थे. उधम सिंह ने पढ़ाई जारी रखने के साथ-साथ स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने का फैसला कर लिया. तब तक वे मैट्रिक की परीक्षा पास कर चुके थे. 1924 में उधम सिंह गदर पार्टी से जुड़ गए. अमेरिका और कनाडा में रह रहे भारतीयों ने 1913 में गदर पार्टी को भारत में क्रांति भड़काने के लिए बनाया था. क्रांति के लिए पैसा जुटाने के मकसद से उधम सिंह ने दक्षिण अफ्रीका, जिम्बाब्वे, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा भी की. भगत सिंह के कहने के बाद वे 1927 में भारत लौट आए. अपने साथ वे 25 साथी, कई रिवॉल्वर और गोला-बारूद भी लाए. जल्द ही अवैध हथियार और गदर पार्टी के अखबार “गदर की गूंज” रखने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उधम सिंह पर मुकदमा चला और उन्हें पांच साल जेल की सजा हुई.
भारत से लन्दन तक का सफ़र:
जेल से छूटने के बाद पंजाब पुलिस उधम सिंह की कड़ी निगरानी कर रही थी. इसी दौरान वे कश्मीर गए और गायब हो गए. बाद में पता चला कि वे जर्मनी पहुंच चुके हैं और फिर फिर ख़बर आयी की उधम सिंह लंदन जा पहुंचे हैं. यहां उन्होंने ड्वॉयर की हत्या कर जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार का बदला लेने की योजना को अंतिम रूप देना शुरू किया. उन्होंने किराए पर एक घर लिया. इधर-उधर घूमने के लिए एक कार भी खरीदी. कुछ समय बाद उन्होंने छह गोलियों वाला एक रिवॉल्वर भी हासिल कर लिया. अब उन्हें सही मौके का इंतजार था. इसी दौरान उन्हें 13 मार्च 1940 की बैठक और उसमें ड्वायर के आने की जानकारी हुई. वे वक्त से पहले ही कैक्सटन हाल पहुंच गए और मुफीद जगह पर बैठ गए. इसके बाद वही हुआ जिसका जिक्र लेख की शुरुआत में हुआ है.
साल 1940, जलियांवाला बाग का बदला और फांसी:
साल 1931 में जेल से रिहा होने के बाद उन पर कड़ी नजर रखी जा रही थी, लेकिन इसी बीच वह किसी तरह कश्मीर भागने में सफल रहे, जहां से वह पहले जर्मनी और फिर 1934 में लंदन पहुंचे. वह 13 मार्च, 1940 की तारीख थी, जब माइकल ओ’डायर लंदन के कैक्सटन हॉल में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और सेंट्रल एशियन सोसाइटी के एक कार्यक्रम में बोलने वाले थे. उधम सिंह वहां अपनी जैकेट की जेब में रिवॉल्वर लेकर पहुंचने में कामयाब रहे थे.
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माइकल ओ’डायर ने जैसे हीं अपना संबोधन शुरू किया उधम सिंह ने तुरंत रिवॉल्वर निकाली और ओ’डायर पर तीन गोलियां दाग दीं. इसके बाद उधम सिंह वहां से भागे नहीं, बल्कि मुस्कराते हुए रिवॉल्वर पुलिस को समर्पित कर दिया और अपनी गिरफ़्तारी दे दी. 31 जुलाई, 1940 को उन्हें लंदन की पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई और वहीं दफन कर दिया गया.
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अंतिम संस्कार
बाद में 1947 में देश के आजाद होने के करीब ढाई दशक बाद 1974 में उनकी अस्थियां यहाँ भारत लाई गई और अंतिम संस्कार पंजाब के सुनाम में उनके जन्मस्थान पर किया गया.
उधम सिंह सर्व धर्म समभाव में यकीन रखते थे. और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर मोहम्मद आज़ाद सिंह रख लिया था जो तीन प्रमुख धर्मों का प्रतीक है. वो ना सिर्फ इस नाम से चिट्ठियां लिखते थे बल्कि यह नाम उन्होंने अपनी कलाई पर भी गुदवा लिया था.